वायु मुद्रा
सर्वप्रथम वज्रासन / पद्मासन या सुखासन में बैठ जाइए। हाथ की तर्जनी उंगली के अग्र भाग को अंगूठे की जड़ में स्पर्श कीजिए और बाकी तीन उंगलियों को सीधा रखिए आँखे बंद रखते हुए श्वांस सामान्य बनाएँगे। यह वायु के असंतुलन से होने वाले सभी रोगों से बचाती है। दो माह तक लगातार इसका अभ्यास करने से वायु विकार दूर हो जाता है। सामान्य तौर पर इस मुद्रा को कुछ देर तक बार-बार करने से वायु विकार संबंधी समस्या की गंभीरता 12 से 24 घंटे में दूर हो जाती है।
अपने मन को अपनी श्वांस गति पर केंद्रित रखिए।
कुछ देर इसी स्थिति में बैठिए
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प्रथ्वी मुद्रा
प्रथ्वी मुद्रा -अनामिका उंगली पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करती है।
सर्वप्रथम वज्रासन / पद्मासन या सुखासन में बैठ जाइए।
अब अनामिका उंगली के अग्र भाग को अंगूठे के अग्र भाग से स्पर्श कीजिए।
हाथों को घुटनो पर रखिए हथेलियों को आकाश की तरफ रखेंगे।
अन्य तीन उंगलियों को सीधा रखिए।
आँखे बंद रखते हुए श्वांस सामान्य बनाएँगे।
अपने मन को अपनी श्वांस गति पर केंद्रित रखिए।
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आदि मुद्रा
विधि-
सर्वप्रथम वज्रासन / पद्मासन या सुखासन में बैठ जाइए।
अब अंगूठे को अंदर की और रखते हुए बाकी चारों उंगलियों को अंदर की और मुट्ठी बाँधने की स्थिति में मोड़ लीजिए सभी उंगलियों के अग्र भाग को हथेली से स्पर्श करते हुए । हाथों को घुटनो / जांघों पर रखेंगे ।
आँखे बंद रखते हुए श्वांस सामान्य बनाएँगे।
अपने मन को अपनी श्वांस गति पर व मुद्रा पर केंद्रित रखिए।
लाभ-
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सूर्य मुद्रा
सूर्य मुद्रा -सर्वप्रथम वज्रासन / पद्मासन या सुखासन में बैठ जाइए।
अब अनामिका उंगली को अंगूठे की जड़ में स्पर्श कीजिए एवं अंगूठे से उसके प्रथम पोर को दवाते हुए बाकी तीन उंगलियाँ सीधी रखिए।
हाथों को घुटनो पर रखिए हथेलियों को आकाश की तरफ रखेंगे।
आँखे बंद रखते हुए श्वांस सामान्य बनाएँगे।
अपने मन को अपनी श्वांस गति पर केंद्रित रखिए।
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अपन वायु मुद्रा
प्राण स्थान मुख्य रूप से हृदय में आंनद केंद्र (अनाहत चक्र) में है। प्राण नाभि से लेकर कठं-पर्यन्त फैला हुआ है। प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास करना, खाया हुआ भोजन पकाना, भोजन के रस को अलग-अलग इकाइयों में विभक्त करना, भोजन से रस बनाना, रस से अन्य धातुओं का निर्माण करना है। अपान का स्थान स्वास्थय केन्द्र और शक्ति केन्द्र है, योग में जिन्हें स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधर चक्र कहा जाता है। अपान का कार्य मल, मूत्र, वीर्य, रज और गर्भ को बाहर निकालना है। सोना, बैठना, उठना, चलना आदि गतिमय स्थितियों में सहयोग करना है। जैसे अर्जन जीवन के लिए जरूरी है, वैसे ही विर्सजन भी जीवन के लिए अनिर्वाय है। शरीर में क
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लिंग मुद्रा
लिंग मुद्रा एक ऐसी मुद्रा है जिसमें हथेली को इंटरलॉक करके शरीर के भीतर विभिन्न तत्वों पर ध्यान केंद्रित करने और उनके प्रवाह को बनाए रखने में सक्षम होती है। हाथ का अंगूठा मनुष्य के शरीर में अग्नि तत्व का प्रतीक होता है। लिंग मुद्रा अग्नि तत्व को मजबूत बनाने का कार्य करती है। आमतौर पर लिंग मुद्रा को ऊष्मा और ऊर्जा की मुद्रा कहा जाता है। लिंग संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ पुरुष के जननांग से है। लिंग मुद्रा शरीर की ऊष्मा ऊर्जा को बढ़ाने में मदद करती है। लिंग मुद्रा, शरीर के भीतर गर्मी को केंद्रित करने काम करती है। इसे लिंग मुद्रा इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह शरीर के अंदर के अग्नि के तत्व पर ध
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ध्यान मुद्रा
विभिन्न योग परंपरा और अलग-अलग योग शिक्षकों की परंपराओं के भीतर ध्यान (meditation mudra)के लिए अलग-अलग शारीरिक मुद्राओं का सुझाव दिया जाता है। कई लोग लेटकर और खड़े होकर भी ध्यान करते हैं तो यह भी ध्यान मुद्रा ही मानी जाती है। हालांकि पद्मासन और सिद्धासन में बैठकर किया जाना वाला ध्यान ही सबसे प्रसिद्ध हैं।
ध्यान मुद्रा (meditation pose or posture) के दो अर्थ है पहला कि हम कौन से आसन में बैठें और दूसरा कि यह एक प्रकार की हस्त मुद्रा का नाम भी है जिसे ध्यान मुद्रा कहते हैं। पद्मासन या सिद्धासन में आंखें बंदकर बैठना ध्यान आसन कहलाता है।
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योग मुद्रा
मुद्रा हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म में एक प्रतीकात्मक या आनुष्ठानिक भाव या भाव-भंगिमा है।जबकि कुछ मुद्राओं में पूरा शरीर शामिल रहता है, लेकिन ज्यादातर मुद्राएं हाथों और उंगलियों से की जाती हैं। एक मुद्रा एक आध्यात्मिक भाव-भंगिमा है और भारतीय धर्म तथा धर्म और ताओवाद की परंपराओं के प्रतिमा शास्त्र व आध्यात्मिक कर्म में नियोजित प्रामाणिकता की एक ऊर्जावान छाप है। नियमित तांत्रिक अनुष्ठानों में एक सौ आठ मुद्राओं का प्रयोग होता है।
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चिन और ज्ञान मुद्रा
चिन और ज्ञान मुद्रा -ज्ञान अर्थात बुद्धि-इस मुद्रा के प्रतिदिन अभ्यास से बुद्धि के स्तर पर वृद्धि होती है। ध्यान और प्राणायाम करते समय इस मुद्रा का नियमित अभ्यास करना चाहिए । अंगूठे एवं तर्जनी अंगुली के स्पर्श से जो मुद्रा बनती है उसे ज्ञान मुद्रा कहते हैं | तर्जनी अर्थात प्रथम उँगली को अँगूठे के नुकीले भाग से स्पर्श करायें। शेष तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।हाथ की तर्जनी (अंगूठे के साथ वाली) अंगुली के अग्रभाग (सिरे) को अंगूठे के अग्रभाग के साथ मिलाकर रखने और हल्का-सा दबाव देने से ज्ञान मुद्रा बनती है| बाकी उंगलियां सहज रूप से सीधी रखें| इस मुद्रा का सम्पूर्ण स्नायुमण्डल और मस्तिष्क पर बड़ा ही हि
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जलनेति
जलनेति एक महत्वपूर्ण शरीर शुद्धि योग क्रिया है जिसमें पानी से नाक की सफाई की जाती और आपको साइनस, सर्दी, जुकाम , पोल्लुशन, इत्यादि से बचाता है। जलनेति में नमकीन गुनगुना पानी का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें पानी को नेटिपोट से नाक के एक छिद्र से डाला जाता है और दूसरे से निकाला जाता है। फिर इसी क्रिया को दूसरी नॉस्ट्रिल से किया जाता है। अगर संक्षेप में कहा जाए तो जलनेति एक ऐसी योग है जिसमें पानी से नाक की सफाई की जाती है और नाक संबंधी बीमारीयों से आप निजात पाते हैं। जलनेति दिन में किसी भी समय की जा सकती है। यदि किसी को जुकाम हो तो इसे दिन में कई बार भी किया जा सकता है। इसके लगातार अभ्यास से यह
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“योग विज्ञान है” – ओशो
योग विज्ञान है, विश्वास नहीं। योग की अनुभूति के लिए किसी तरह की श्रद्धा आवश्यक नहीं है। योग का इस्लाम, हिंदू, जैन या ईसाई से कोई संबंध नहीं है।
जिन्हें हम धर्म कहते हैं वे विश्वासों के साथी हैं। योग विश्वासों का नहीं है, जीवन सत्य की दिशा में किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों की सूत्रवत प्रणाली है। इसलिए पहली बात मैं आपसे कहना चाहूंगा वह यह कि योग विज्ञान है, विश्वास नहीं। योग की अनुभूति के लिए किसी तरह की श्रद्धा आवश्यक नहीं है। योग के प्रयोग के लिए किसी तरह के अंधेपन की कोई जरूरत नहीं है।
नास्तिक भी योग के प्रयोग में उसी तरह प्रवेश पा सकता है जैसे आस्तिक। योग नास्तिक-आस्तिक की भी चिंता नहीं करता है। विज्ञान आपकी धारणाओं पर निर्भर नहीं होता; विपरीत, विज्ञान के कारण आपको अपनी धारणाएं परिवर्तित करनी पड़ती हैं। कोई विज्ञान आपसे किसी प्रकार के बिलीफ, किसी तरह की मान्यता की अपेक्षा नहीं करता है। विज्ञान सिर्फ प्रयोग की, एक्सपेरिमेंट की अपेक्षा करता है।