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ध्यान

 ध्यान महर्षि महर्षि पतंजलि अष्टांग योग साधना पद्धति का सप्तम मंगल योग दर्शन का उद्देश्य आत्म साक्षात करना यह समाधि की प्राप्ति करना है ध्यान समाधि से पूर्व की अवस्था है जब ध्यान अमृत रूप से प्रभावित होता रहता है तो यह समाधि का सादर करा देता है अष्टांग योग के दो भाग बजरंग कथा अंतरंग योग है बहिरंग योग में यम यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार आते हैं जबकि अंतरंग योग साधना में धारणा ध्यान तथा समाधि आते हैं दाना में अपने इस चंचल मन को किसी एक स्थान पर केंद्रित किया जाता है जब किसी स्थान विशेष पर हमारा मन नियंत्रण केंद्रित रहने लगता है तब वह धारणा ध्यान में परिवर्तित होने लगती है महर्षि पतंजलि ध्यान को परिभाषित करते हुए कहते हैं चेतना के पर्यावरण पर प्रभाव को ध्यान कैसे हैं जब आप किसी वस्तु विशेष पर ध्यान कर रहे हैं तो केवल उसका अंतर दर्शन ही नहीं कीजिए अब तू यह भी कीजिए कि आप ध्यान कर रहे हैं कभी-कभी साधक भी वस्तु के प्रति बेखबर हो जाता है परंतु मैं यह जानता है कि वह ध्यान कर रहा है इसे साक्षी भाव कहते हैं एक बार एक बार धारणा में सिद्ध होते ही ध्यान लगने लगता है जो स्वयं आगे चलकर शादी में परिवर्तित हो जाता है वास्तु अर्थात ध्यान का विषय सूक्ष्म से स्थूल कुछ भी हो सकता है सामान्यतः मध्य नाभि कंठ अनाहत चक्र आदि स्थानों पर मन सहजता के केंद्रित हो जाता है साधक को प्रार्थना में धीरे-धीरे इन चक्रों पर मन मन केंद्रित करने का प्रयास करना चाहिए मन के चंचल स्वभाव के कारण शुरू में इसका केंद्रित होना मुश्किल लगता है लेकिन साधक को इस से निराश नहीं होना चाहिए पर निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए यह सभी चक्र कुंडलिनी शक्ति के जागरण के मार्ग में जंक्शन का कार्य करते हैं ध्यान साधना द्वारा जंक्शन को एक एक कर पार करते हुए कुंडलिनी शक्ति को भी जाग्रत किया जा सकता है ध्यान साधना का दूसरा विषय हमारे हृदय में अवैध रूप से प्रकाशित परमात्मा का प्रकाश भी हो सकता है साधक को ऐसी धारणा करनी चाहिए कि उसके हृदय में दिव्य प्रकार प्रभावित हो रहा है जो साक्षात परम पिता का ही रूप है कभी-कभी साधक का ध्यान अभ्यास में अपने हृदय में अपने इष्टदेव के रूप की कल्पना करनी चाहिए ओमकार या किसी अन्य प्रिय मंत्र पर भी ध्यान का अभ्यास किया जा सकता है सांस की गति पर भी ध्यान का विशेष महत्व है

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