तीसरी आँख को विकसित करने लिए - ध्यान
(1) साक्षी को खोजना— ओशो
शिव ने कहा: होश को दोनों भौहों के मध्य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो। देह को पैर से सिर तक प्राण तत्व से भर जाने दो, ओर वहां वह प्रकाश की भांति बरस जाए।
वह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस वह विधि लेकर ग्रीस गया। और वास्तव में यह पश्चिम में सारे रहस्यवाद का उद्गम बन गया। स्त्रोत बन गया। वह पश्चिम में पूरे रहस्यवाद का जनक है।
यह विधि बहुत गहन पद्धतियों में से है। इसे समझने का प्रयास करो: “होश को दोनों भौहों के मध्य में लाओ।”
आधुनिक मनोविज्ञान और वैज्ञानिक शोध कहती है कि दोनों भौंहों के मध्य में एक ग्रंथि है जो शरीर का सबसे रहस्यमय अंग है। यह ग्रंथि, जिसे पाइनियल ग्रंथि कहते है। यही तिब्बतियों का तृतीय नेत्र है—शिवनेत्र : शिव का, तंत्र का नेत्र। दोनों आंखों के बीच एक तीसरी आँख का अस्तित्व है, लेकिन साधारणत: वह निष्कृय रहती है। उसे खोलने के लिए तुम्हें कुछ करना पड़ता है। वह आँख अंधी नहीं है। वह बस बंद है। यह विधि तीसरी आँख को खोलने के लिए ही है।
“होश को दोनों भौंहों के मध्य में लाऔ।”……अपनी आंखें बंद कर लो, और अपनी आंखों को दोनों भौंहों के ठीक बीच में केंद्रित करो। आंखे बंद करके ठीक मध्य में होश को केंद्रित करो, जैसे कि तुम अपनी दोनों आँखो से देख रहे हो। उस पर पूरा ध्यान दो।
वह विधि सचेत होने के सरलतम उपायों में से है। तुम शरीर के किसी अन्य अंग के प्रति इतनी सरलता से सचेत नहीं हो सकते। यह ग्रंथि होश को पूरी तरह आत्मसात कर लेती है। यदि तुम उस पर होश को भ्रूमध्य पर केंद्रित करो तो तुम्हारी दोनों आंखें तृतीय नेत्र से सम्मोहित हो जाती है। वे जड़ हो जाती है, हिल भी नहीं सकती। यदि तुम शरीर के किसी अन्य अंग के प्रति सचेत होने का प्रयास कर रहे हो तो यह कठिन है। यह तीसरी आँख होश को पकड़ लेती है। होश को खींचती है। वह होश के लिए चुम्बकीय है। तो संसार भर की सभी पद्धतियों ने इसका उपयोग किया है। होश को साधने का यह सरलतम उपाय है। क्योंकि तुम ही होश को केंद्रित करने का प्रयास नहीं कर रहे हो; स्वयं वह ग्रंथि भी तुम्हारी मदद करती है; वह चुम्बकीय है। तुम्हारा होश बलपूर्वक उनकी और खींच लिया जाता है। वह आत्मसात हो जाता है।
तंत्र के प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि होश तीसरी आँख का भोजन है। वह आँख भूखी है; जन्मों-जन्मों से भूखी है। यदि तुम उस पर होश को लाओगे तो वह जीवंत हो जाती है। उसे भोजन मिल जाता है। एक बार बस तुम इस कला को जान जाओं। तुम्हारा होश स्वयं ग्रंथि द्वारा ही चुम्बकीय ढंग से खिंचता है। आकर्षित होता है। तो फिर होश को साधना कोई कठिन बात नहीं है। व्यक्ति को बस ठीक बिंदु जान लेना होता है। तो बस अपनी आंखें बंद करों, दोनों आँखो को भ्रूमध्य की और चले जाने दो, और उस बिंदु को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के समीप आओगे तो अचानक तुम्हारी आँख जड़ हो जाएंगी। जब उन्हें हिलाना कठिन हो जाए तो जानना कि तुमने ठीक बिंदु को पकड़ लिया है।
‘’होश को दोनों भौंहों के मध्य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो।‘’……यदि यह होश लग जाए तो पहली बार तुम्हें एक अद्भुत अनुभव होगा। पहली बार तुम विचारों को अपने सामने दौड़ता हुआ अनुभव करोगे। तुम साक्षी हो जाओगे। यह बिलकुल फिल्म के परदे जैसा होता है। विचार दौड़ रहे है और तुम एक साक्षी हो।
सामान्यतया तुम साक्षी नहीं होते: तुम विचारों के साथ एकात्म हो। यदि क्रोध आता है तो तुम क्रोध ही हो जाते हो। कोई विचार उठता है तो तुम उसके साक्षी नहीं हो सकते। तुम विचार के साथ एक हो जाते हो। एकात्म हो जाते हो, और इसके साथ ही चलने लगते हो। तुम एक विचार ही बन जाते हो। जब काम उठता है तो तुम काम ही बन जाते हो। जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध ही बन जाते हो। जब लोभ बनता है तो तुम लोभ ही बन जाते हो। कोई चलता हुआ विचार और उनसे तुम्हारा तादात्म्य हो जाता है। विचार और तुम्हारे बीच में कोई अंतराल नहीं होता।
लेकिन तृतीय नेत्र पर केंद्रित होकर तुम अचानक एक साक्षी हो जाते हो। तृतीय नेत्र के द्वारा तुम विचारों को ऐसे ही देख सकते हो जैसे की आकाश में बादल दौड़ रहे हों, अथवा सड़क पर लोग चल रहे है।
साक्षी होने का प्रयास करो। जो भी हो रहा हो, साक्षी होने का प्रयास करो। तुम बीमार हो, तुम्हारा शरीर दुःख रहा है और पीड़ित है, तुम दुःखी और पीड़ित हो , जो भी हो रहा है, स्वयं का उससे तादात्म्य मत करो। साक्षी बने रहो। द्रष्टा बने रहो। फिर यदि साक्षित्व संभव हो जाए तो तुम तृतीय नेत्र मे केंद्रित हो जाओगे।
दूसरा, इससे उल्टा भी हो सकता है। यदि तुम तृतीय नेत्र में केंद्रित हो तो तुम साक्षी बन जाओगे। ये दोनों चीजें एक ही प्रक्रिया के हिस्से है। तो पहली बात: तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से साक्षी का प्रादुर्भाव होगा। अब तुम अपने विचारों (से साक्षात्कार कर सकते हो। यह पहली बात होगी। और दूसरी बात यह होगी कि अब तुम श्वास के सूक्ष्म और कोमल स्पंदन को अनुभव कर सकोगे। अब तुम श्वास के प्रारूप को श्वास के सार तत्व को अनुभव कर सकेत हो।
पहले यह समझने का प्रयास करो कि ‘’प्रारूप’’ का, श्वास के सार तत्व का क्या अर्थ है। श्वास लेते समय तुम केवल हवा मात्र भीतर नहीं ले रहे हो। विज्ञान कहता है कि तुम केवल वायु भीतर लेते हो—बस ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व अन्या गैसों का मिश्रण। वे कहते है कि तुम ‘’वायु’’ भीतर ले रहे हो। लेकिन तंत्र कहता है कि वायु बस एक वाहन है, वास्तविक चीज नहीं है। तुम प्राण को, जीवन शक्ति को भीतर ले रहे हो। वायु केवल माध्यम है; प्राण उसकी अंतर्वस्तु है। तुम केवल वायु नहीं, प्राण भीतर ले रहे हो।
तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से अचानक तुम श्वास के सार तत्व को देख सकते हो—श्वास को नहीं बल्कि श्वास के सार तत्व को, प्राण को। और यदि तुम श्वास के सार तत्व को, प्राण को देख सको तो तुम उसे बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लगती है, अंतस क्रांति घटित होती है।
(2) पंख की भांति छूना ध्यान —ओशो
शिव ने कहा: आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उसके बीच का हलका पन ह्रदय में खुलता है।
ओशो–अपनी दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्हें अपनी बंद आँखो पर रखो, और हथेलियों को पुतलियों पर छू जाने दो—लेकिन पंख के जैसे, बिना कोई दबाव डाले। यदि दबाव डाला तो तुम चूक गए, तुम पूरी विधि से ही चूक गए। दबाव मत डालों; बस पंख की भांति छुओ। तुम्हें थोड़ा समायोजन करना होगा क्योंकि शुरू में तो तुम दबाब डालोगे। दबाव का कम से कम करते जाओ जब तक कि दबाब बिलकुल समाप्त न हो जाए—बस तुम्हारी हथैलियां पुतलियों को छुएँ। बस एक स्पर्श, बाना दबाव का एक मिलन क्योंकि यदि दबाव रहा तो यह विधि कार्य नहीं करेगी। तो बस एक पंख की भांति।
क्यों?—क्योंकि जहां सुई का काम हो वहां तलवार कुछ भी नहीं कर सकती। यदि तुमने दबाव डाला, तो उसका गुणधर्म बदल गया—तुम आक्रामक हो गए। और जो ऊर्जा आंखों से बह रहा है वह बहुत सूक्ष्म है: थोड़ा सा दबाव, और वह संघर्ष करने लगती है जिससे एक प्रतिरोध पैदा हो जाता है। यदि तुम दबाव डालोगे तो जो ऊर्जा आंखों से बह रही है वह एक प्रतिरोध, एक लड़ाई शुरू कर देगी। एक संघर्ष छिड़ जाएगा। इसलिए दबाव मत डालों आंखों की ऊर्जा को थोड़े से दबाव का भी पता चल जाता है।
वह ऊर्जा बहुत सूक्ष्म है, बहुत कोमल है। दबाव मत डालों—बस पंख की भांति, तुम्हारी हथैलियां ही छुएँ, जैसे कि स्पर्श हो ही न रहा हो। स्पर्श ऐसे करो जैसे कि वह स्पर्श ने हो, दबाव जरा भी न हो; बस एक स्पर्श, एक हलका-सा एहसास कि हथेली पुतली को छू रही है, बस।
इससे क्या होगा? जब तुम बिना दबाव डाले हलके से छूते हो तो ऊर्जा भीतर की और जाने लगती है। यदि तुम दबाव डालों तो वह हाथ के साथ, हथेली के साथ लड़ने लगती है। और बहार निकल जाती है। हल्का-सा स्पर्श, और ऊर्जा भीतर जाने लगती है। द्वार बंद हो जाता है। बस द्वार बंद होता है और ऊर्जा वास लौट पड़ती है। जिस क्षण ऊर्जा वापस लौटती है, तुम आपने चेहरे और सिर पर एक हलकापन व्याप्त होता अनुभव करोगे। यह वापस लौटती ऊर्जा तुम्हें हल्का कर देती है।
और इन दोनों आंखों के बीच में तीसरी आंख, प्रज्ञा-चक्षु है। ठीक दोनों आंखों के मध्य में तीसरी आँख है। आँखो से वापस लोटती ऊर्जा तीसरी आँख से टकराती है। यहीं कारण है कि व्यक्ति हल्का और जमीन से उठता हुआ अनुभव करता है। जैसे कि कोई गुरुत्वाकर्षण न रहा हो। और तीसरी आँख से ऊर्जा ह्रदय पर बरस जाती है; यह एक शारीरिक प्रक्रिया है: बूंद-बूंद करके ऊर्जा टपकती है। और तुम अत्यंत हल्कापन अपने ह्रदय में प्रवेश करता अनुभव करोगे। ह्रदय गति कम हो जाएगी। श्वास धीमी हो जाएगी। तुम्हारा पूरा शरीर विश्रांत अनुभव करेगा।
यदि तुम गहन ध्यान में प्रवेश नहीं भी कर रहे हो, तो भी यह प्रयोग तुम्हें शारीरिक रूप से उपयोगी होगा। दिन में किसी भी समय, आराम से कुर्सी पर बैठ जाओ—या तुम्हारे पास यदि कुर्सी न हो, जब तुम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हों—तो अपनी आंखें बंद कर लो। पूरे शरीर में एक विश्रांति अनुभव करो। और फिर दोनों हथेलियों को अपनी आंखों पर रख लो। लेकिन दबाव मत डालों—यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। बस पंख की भांति छुओ।
जब तुम स्पर्श करो और दबाव न डालों, तो तुम्हारे विचार तत्क्षण रूक जाएंगे। विश्रांत मन में विचार नहीं चल सकते। वे जम जाते है। विचारों को उन्माद और बुखार की जरूरत होती है। उनके चलने के लिए तनाव की जरूरत होती है। वे तनाव के सहारे ही जीते है। जब आंखें शांत व शिथिल हों और ऊर्जा पीछे लौटने लगे तो विचार रूक जायेंगे। तुम्हें एक मस्ती का अनुभव होगा। जो रोज-रोज गहराता जाएगा।
तो इस प्रयोग को दिन में कई बार करो। एक क्षण के लिए छूना भी अच्छा रहेगा। जब भी तुम्हारी आंखे थकी हुई ऊर्जा विहीन और चुकी हुई महसूस करें—पढ़कर, फिल्म देखकर, या टेलिविजन देखकर। जब भी तुम्हें ऐसा लगे, अपनी आंखे बंद कर लो। और स्पर्श करो मोर पंखी। तत्क्षण प्रभाव होगा। लेकिन यदि तुम इसे एक ध्यान बनाना चाहते हो तो इसे कम से कम चालीस मिनट के लिए करो। और पूरी बात यही है कि दबाव नहीं डालना। एक क्षण के लिए तो पंख जैसा स्पर्श सरल है; चालीस मिनट के लिए कठिन है। कई बार तुम भूल जाओगे और दबाव डालने लगोगे।
दबाव मत डालों। चालीस मिनट के लिए वह बोध बनाए रहो कि तुम्हारे हाथों में कोई बोझ नहीं है। वे बस स्पर्श कर रहे है। यह बोध बनाए रहो कि वे दबाव नहीं डाल रहे है, बस स्पर्श कर रहे है। यह एक गहन बोध बन जाएगा। बिलकुल ऐसे जैसे श्वास-प्रश्वास। जैसे बुद्ध कहते है कि पूरे जाग कर श्वास लो। ऐसा ही स्पर्श के साथ भी होगा। तुम्हें सतत स्मरण रखना होगा कि तुम दबाव नहीं डाल रहे। तुम्हारा हाथ बस एक पंख, एक भारहीन वस्तु बन जाना चाहिए। जो बस छुए। तुम्हारा चित समग्ररतः: सचेत होकर वहां आंखों के पास लगा रहेगा। और ऊर्जा सतत बहती रहेगी। शुरू में तो वह बूंद-बूंद करके ही टपकेगी। कुछ ही महीनों में तुम्हें लगेगा वह सरिता सी हो गई है, और एक साल बीतते-बीतते तुम्हें लगेगा कि वह एक बाढ़ की तरह हो गई है। और जब ऐसा होता है—‘’आँख की पुतलियाँ को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन…।‘’ जब तुम स्पर्श करोगे तो तुम्हें हलकापन महसूस कर सकते हो। जैसे की तुम स्पर्श करते हो, तत्क्षण एक हलकापन आ जाता है। और वह ‘’उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है।‘’…वह हलकापन ह्रदय में प्रवेश कर जाता है, खुल जाता है। ह्रदय में केवल हलकापन ही प्रवेश कर सकता है। कोई भी बोझिल चीज प्रवेश नहीं कर सकती है। ह्रदय के साथ बहुत हल्की फुलकी घटनाएं ही घट सकती है।
दोनों आंखों के बीच का यह हलकापन ह्रदय में टपकने लगेगा। और ह्रदय उसको ग्रहण करने के लिए खुल जाएगा—‘’और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।‘’ और जैसे-जैसे यह बहती ऊर्जा पहले एक धारा, फिर एक सरिता और फिर एक बाढ़ बनती है तुम पूरी तरह बह जाओगे, दूर बह जाओगे। तुम्हें लगेगा ही नहीं कि तुम हो। तुम्हें लगेगा कि बस ब्रह्मांड ही है। श्वास लेते हुए, श्वास छोड़ते हुए तुम्हें ऐसा ही लगेगा। कि तुम ब्रह्मांड बन गए हो। ब्रह्मांड भीतर आता है और ब्रह्मांड बाहर जाता है। वह इकाई जो तुम सदा बने रहे—अहंकार—वह नहीं बचता।
(3) नासाग्र को देखना (ध्यान)—ओशो
लाओत्से ने कहा: व्यक्ति नासाग्र की और देखे।
क्यों—क्योंकि इससे मदद मिलती है, यह प्रयोग तुम्हें तृतीय नेत्र की रेखा पर ले आता है। जब तुम्हारी दोनों आंखें नासाग्र पर केंद्रित होती है तो उससे कई बातें होती है। मूल बात यह है कि तुम्हारा तृतीय नेत्र नासाग्र की रेखा पर है—कुछ इंच ऊपर, लेकिन उसी रेखा में। और एक बार तुम तृतीय नेत्र की रेखा में आ जाओ तो तृतीय नेत्र का आकर्षण उसका खिंचाव, उसका चुम्बकत्व रतना शक्तिशाली है कि तुम उसकी रेखा में पड़ जाओं तो अपने बावजूद भी तुम उसकी और खींचे चले आओगे। तुम बस ठीक उसकी रेखा में आ जाना है, ताकि तृतीय नेत्र का आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण सक्रिय हो जाए। एक बार तुम ठीक उसकी रेखा में आ जाओं तो किसी प्रयास की जरूरत नहीं है।
अचानक तुम पाओगे कि गेस्टाल्ट बदल गया, क्योंकि दो आंखें संसार और विचार का द्वैत पैदा करती है। और इन दोनों आंखों के बीच की एक आँख अंतराल निर्मित करती है। यह गेस्टाल्ट को बदलने की एक सरल विधि है।
मन इसे विकृत कर सकता है—मन कह सकता है, “ठीक अब, नासाग्र को देखो। नासाग्र का विचार करो, उस चित को एकाग्र करो।” यदि तुम नासाग्र पर बहुत एकाग्रता साधो तो बात को चूक जाओगे, क्योंकि होना तो तुम्हें नासाग्र पर है, लेकिन बहुत शिथिल ताकि तृतीय नेत्र तुम्हें खींच सके। यदि तुम नासाग्र पर बहुत ही एकाग्रचित्त, मूल बद्ध, केंद्रित और स्थिर हो जाओ तो तुम्हारा तृतीय नेत्र तुम्हें भीतर नहीं खींच सकेगा क्योंकि वह पहले कभी भी सक्रिय नहीं हुआ। प्रारंभ में उसका खिंचाव बहुत ज्यादा नहीं हो सकता। धीरे-धीरे वह बढ़ता जाता है। एक बार वह सक्रिय हो जाए और उपयोग में आने लगे, तो उसके चारों और जमी हुई धूल झड़ जाए, और यंत्र ठीक से चलने लगे। तुम नासाग्र पर केंद्रित भी हो जाओ तो भी भीतर खींच लिए जाओगे। लेकिन शुरू-शुरू में नहीं। तुम्हें बहुत ही हल्का होना होगा, बोझ नहीं—बिना किसी खींच-तान के। तुम्हें एक समर्पण की दशा में बस वहीं मौजूद रहना होगा।…..
“यदि व्यक्ति नाक का अनुसरण नहीं करता तो यह तो वह आंखें खोलकर दूर देखता है जिससे कि नाक दिखाई न पड़े अथवा वह पलकों को इतना जोर से बंद कर लेता है कि नाक फिर दिखाई नहीं पड़ती।”
नासाग्र को बहुत सौम्यता से देखने का एक अन्य प्रयोजन यह भी है: कि इससे तुम्हारी आंखें फैल कर नहीं खुल सकती। यदि तुम अपनी आंखे फैल कर खोल लो तो पूरा संसार उपलब्ध हो जाता है। जहां हजारों व्यवधान है। कोई सुंदर स्त्री गुजर जाती है और तुम पीछा करने लगते हो—कम से कम मन में। या कोई लड़ रहा है; तुम्हारा कुछ लेना देना नहीं है, लेकिन तुम सोचने लगते हो कि “क्या होने वाला है?” या कोई रो रहा है और तुम जिज्ञासा से भर जाते हो। हजारों चीजें सतत तुम्हारे चारों और चल रही है। यदि आंखे फैल कर खुली हुई है तो तुम पुरूष ऊर्जा—याँग—बन जाते हो।
यदि आंखे बिलकुल बंद हो तो तुम एक प्रकार सी तंद्रा में आ जाते हो। स्वप्न लेने लगते हो। तुम स्त्रैण ऊर्जा—यन—बन जाते हो। दोनों से बचने के लिए नासाग्र पर देखो—सरल सी विधि है, लेकिन परिणाम लगभग जादुई है।
और ऐसा केवल ताओ को मानने वालों के साथ ही है। बौद्ध भी इस बात को जानते है, हिंदू भी जानते है। ध्यानी साधक सदियों से किसी न किसी तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचते रहे है कि आंखे यदि आधी ही बंद हों तो अत्यंत चमत्कारिक ढंग से तुम दोनों गड्ढों से बच जाते हो। पहली विधि में साधक बह्म जगत से विचलित हो रहा है। और दूसरी विधि में भीतर के स्वप्न जगत से विचलित हो रहा है। तुम ठीक भीतर और बाहर की सीमा पर बने रहते हो और यही सूत्र है: भीतर और बाहर की सीमा पर होने का अर्थ है उस क्षण में तुम न पुरूष हो न स्त्री हो तुम्हारी दृष्टि द्वैत से मुक्त है; तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे भीतर के विभाजन का अतिक्रमण कर गई। जब तुम अपने भीतर के विभाजन से पार हो जाते हो, तभी तुम तृतीय नेत्र के चुम्बकीय क्षेत्र की रेखा में आते हो।
“मुख्य बात है पलकों को ठीक ढंग से झुकाना और तब प्रकाश को स्वयं ही भीतर बहने देना।”
इसे स्मरण रखना बहुत महत्वपूर्ण है: तुम्हें प्रकाश को भीतर नहीं खींचना है, प्रकाश को बलपूर्वक भीतर नहीं लाना है। यदि खिड़की खुली हो तो प्रकाश स्वयं ही भीतर आ जाता है। यदि द्वार खुला हो तो भीतर प्रकाश की बाढ़ जा जाती है। तुम्हें उसे भीतर प्रकाश की बाढ़ आ जाती है। तुम्हें उसे भीतर लाने की जरूरत नहीं है। उसे भीतर धकेलने की जरूरत नहीं है। भीतर घसीटने की जरूरत नहीं है। और तुम प्रकाश को भी तर कैसे घसीट सकते हो? प्रकाश को तुम भीतर कैसे धकेल सकते हो? इतना ही चाहिए कि तुम उसके प्रति खुले और संवेदनशील रहो।…..
“दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है।”
स्मरण रखो, तुम्हें दोनों आँखो से नासाग्र को देखना है ताकि नासाग्र पर दोनों आंखे अपने द्वैत को खो दें। तो जो प्रकाश तुम्हारी आंखों से बाहर बह रहा है वह नासाग्र पर एक हो जाता है। वह एक केंद्र पर आ जाता है। जहां तुम्हारी दोनों आंखें मिलती है, वहीं स्थान है जहां खिड़की खुलती है। और फिर सब शुभ है। फिर इस घटना को होने दो, फिर तो बस आदत मनाओ, उत्सव मनाओ, हर्षित होओ। प्रफुल्लित होओ। फिर कुछ भी नहीं करना है।
“दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है, सीधा होकर बैठता है।”
सीधी होकर बैठना सहायक है। जब तुम्हारी रीढ़ सीधी होती है। तुम्हारे काम-केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है। सीधी-सादी विधियां है, कोई जटिलता इनमें नहीं है, बस इतना ही है कि जब दोनों आंखें नासाग्र पर मिलती है, तो तुम तृतीय नेत्र के लिए उपलब्ध कर दो। फिर प्रभाव दुगुना हो जाएगा। प्रभाव शक्तिशाली हो जाएगा, क्योंकि तुम्हारी सारी ऊर्जा काम केंद्र में ही है। जब रीढ़ सीधी खड़ी होती है तो काम केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है। यह बेहतर है कि दोनों आयामों से तृतीय नेत्र पर चोट की जाए, दोनों दिशाओं से तृतीय नेत्र में प्रवेश करने की चेष्टा की जाए।
“व्यक्ति सीधा होकर और आराम देह मुद्रा में बैठता है।”
सदगुरू चीजों को अत्यंत स्पष्ट कर रहे है। सीधे होकर, निश्चित ही, लेकिन इसे कष्टप्रद मत बनाओ; वरन फिर तुम अपने कष्ट से विचलित हो जाओगे। योगासन का यही अर्थ है। संस्कृत शब्द ‘’आसन’’ का अर्थ है: एक आरामदेह मुद्रा। आराम उसका मूल गुण है। यदि वह आरामदेह न हो तो तुम्हारा मन कष्ट से विचलित हो जाएगा। मुद्रा आरामदेह ही हो…..
“और इसका अर्थ अनिवार्य रूप से सिर के मध्य में होना नहीं है।”
और केंद्रिय होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हें सिर के मध्य में केंद्रित होना है।
“केंद्र सर्वव्यापी है; सब कुछ उसमें समाहित है; वह सृष्टि की समस्त प्रक्रिया के निस्तार से जुड़ा हुआ है।”
और जब तुम तृतीय नेत्र के केंद्र पर पहुंच कर वहां केंद्रित हो जाते हो और प्रकाश बाढ़ की भांति भीतर आने लगता है, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए, जहां से पूरी सृष्टि उदित हुई है। तुम निराकार और अप्रकट पर पहुच गए। चाहो तो उसे परमात्मा कह लो। यही वह बिंदु है, यह वह आकाश है, जहां से सब जन्मा है। यही समस्त अस्तित्व का बीज है। यह सर्वशक्तिमान है। सर्वव्यापी है, शाश्वत है।……
“ध्यान की साधन अपरिहार्य है।”
ध्यान क्या है?—निर्विचार का एक क्षण। निर्विचार की एक दशा, एक अंतराल। और यह सदा ही घट रहा है, लेकिन तुम इसके प्रति सजग नहीं हो; वरना तो इसमें कोई समस्या नहीं है। एक विचार आता है, फिर दूसरा आता है, और उन दो विचारों के बीच में सदा एक छोटा सा अंतराल होता है। और वह अंतराल ही दिव्य का द्वार है, वह अंतराल ही ध्यान है। यदि तुम उस अंतराल ही ध्यान है। यदि तुम उस अंतराल में गहरे देखो, तो वह बड़ा होने लगता है।
मन ट्रैफिक से भरी हुई एक सड़क की तरह है; एक कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है। और तुम कारों से इतने ज्यादा ग्रसित हो कि तुम्हें वह अंतराल तो दिखाई ही नहीं पड़ता जो दो कारों के बीच सदा मौजूद है। वरना तो कारें आपस में टकरा जाएंगी। वे टकराती नहीं; उनके बीच में कुछ है जो उन्हें अलग रखता है। तुम्हारे विचार आपस में नहीं टकराते, एक दूसरे पर नहीं चढ़ते, एक दूसरे में नहीं मिल जाते। वे किसी भी तरह एक दूसरे पर नहीं चढ़ते। हर विचार की अपनी सीमा होता है, हार विचार परिभाष्य होता है। लेकिन विचारों का जुलूस इतना तेज होता है, इतना तीव्र होता है कि अंतराल को तुम तब तक नहीं देख सकते, जब तक कि तुम उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे हो। उसकी खोज नहीं कर रहे हो।
ध्यान का अर्थ है गेस्टाल्ट को बदल डालना। साधारणत: हम विचारों को देखते है: एक विचार, दूसरा विचार, फिर कोई और विचार। जब तुम गेस्टाल्ट को बदल देते हो तो तुम एक अंतराल को देखते हो, फिर दूसरे अंतराल को देखते हो। तुम्हारा आग्रह विचार पर नहीं रहता। अंतराल पर आ जाता है।
‘’यदि सांसारिक विचार उठे तो व्यक्ति जड़ न बैठा रहे, वरन निरीक्षण करे कि विचार कहां से शुरू हुआ, और कहां विलीन हुआ।‘’
यह पहले ही प्रयास में नहीं होने वाला है। तुम नासाग्र पर देख रहे होओगे और विचार आ जाएंगे। वे इतने जन्मों से आते रहे है कि इतनी सरलता से तुम्हें नहीं छोड़ सकते। वे तुम्हारा हिस्सा बन गए है। तुम करीब-करीब एक पूर्वनिर्धारित जीवन जी रहे हो।
ऐसा होता है: जब लोग ध्यान में शांत होकर बैठते है, तो सामान्यत: जितने विचार आते है। तब उससे अधिक विचार आते है—असमान्य विस्फोट होते है। लाखों विचार दौड़ें चले आते है, क्योंकि उनका अपना स्वार्थ है तुम्हें, और तुम उनकी ताकत से बाहर निकलने की चेष्टा कर रहे हो? तुम शांत होकर बैठे नहीं रह सकते। तुम्हें कुछ करना पड़ेगा। संघर्ष से तो कोई लाभ नहीं होगा। क्योंकि तुम यदि संघर्ष करने लगे तो तुम नासाग्र पर देखना भूल जाओगे। तृतीय नेत्र का, प्रकाश के प्रवाह को बोध खो जाएगा; तुम सब भूल कर विचारों के जंगल में खो जाओगे। यदि तुम विचारों का पीछा करने लगे तो तुम खो गए। उसका अनुसरण करने लगे तो तुम खो गए। उनके साथ तुम संघर्ष करने लगे तो भी तुम खो गए। तो फिर क्या करना?
और यही राज है। बुद्ध भी इसी राज को उपयोग में लाए। वास्तव में सभी राज तो लगभग एक से ही है क्योंकि मनुष्य यही है—ताला वही है, जो कुंजी भी वहीं होनी चाहिए। यही राज है; बुद्ध इसे सम्मा सती, सम्यक स्मृति कहते है। इतना स्मरण रखो: यह विचार आया है, बिना किसी विरोध, बिना किसी दलील , बिना किसी निंदा के देखो कि वह है, कहां एक वैज्ञानिक की भांति निरीक्षक हो रहो। देखो कि वह कहां है, कहां से आ रहा है। कहां जा रहा है। उसके आने को देखो उसके रूकने को देखो उसके जाने को देखो। और विचार बहुत गत्यात्मक है; वे देर तक नहीं रुकते। तुम्हें तो बस विचार के उठने उसके रूकने, उसके जाने को देखना भर है। न संघर्ष करने की चेष्टा करो। न अनुसरण करो, बस एक मौन निरीक्षक बने रहो। और तुम्हें हैरानी होगी; निरीक्षक जितना थिर हो जाता है, विचार उतने ही कम आएँगे। जब निरीक्षक बिलकुल पूर्ण हो जाता है तो विचार समाप्त हो जाते है। बस एक अंतराल, एक मध्यांतर ही बचता है।
लेकिन एक बात और याद रखना: मन फिर से एक चाल चल सकता है।
‘’प्रतिबिंब को आगे सरकाने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता।‘’
यही फ्रायडियन मनोविश्लेषण भी है: विचारों की मुक्त साहचर्य शृंखला। एक विचार आता है, और फिर तुम दूसरे विचार की प्रतीक्षा करते हो, और फिर तीसरे की, और यह पूरी शृंखला है। … हर मनोविश्लेषण यही कहता है—तुम अतीत में पीछे जाने लगते हो। एक विचार दूसरे से जुड़ा होता है। और यह शृंखला अनंत तक चलती है। उसका काई अंत नहीं है। यदि तुम उसके भीतर जाने लगो तो तुम एक अनंत यात्रा पर निकल जाओगे। और यह बिलकुल अपव्यय होगा। मन ऐसा कर सकता है। तो इसके प्रति सजग रहो।….
मन के द्वारा तुम मन के पार नहीं जा सकेत। इसलिए व्यर्थ में अनावश्यक चेष्टा मत करो। वरना एक बात तुम्हें दूसरे में ले जाएगी। और ऐस आगे से आगे चलता रहेगा। और तुम बिलकुल भूल ही जाओगे कि तुम क्या करने का प्रयास कर रहे थे। नासाग्र गायब हो जाएगा। तृतीय नेत्र भूल जाएगा। और प्रकाश का प्रवाह तो तुमसे मीलों दूर चला जाएगा। तो ये दो बातें स्मरण रखने की है, ये दो पंख है। एक: जब अंतराल आ जाएं, कोई विचार न चलता हो, तो ध्यान करो। जब कोई विचार आए तो बस इन तीन बातों को देखो: विचार कहां है, वह कहां से आया है और कहां जा रहा है। एक क्षण के लिए अंतराल को देखना छोड़ दो और विचार को देखो, उसे अलविदा करो। जब वह चला जाए, तो फिर से ध्यान के अभ्यास पर वापस लौट आओ।
‘’जब विचारों की उड़ान आग बढती जाए, जो व्यक्ति को रूक कर विचारों का निरीक्षण करना चाहिए। इस प्रकार वह ध्यान भी करे और तब फिर से निरीक्षण शुरू करे।‘’
तो जब भी विचार आता है, तब निरीक्षण करो। जब भी विचार जाता है तब ध्यान करो।
‘’यह संबोधि को तीव्रता से लाने का दोहरा उपाय है। संबोधि का अर्थ है प्रकाश का वृताकार प्रवाह। प्रवाह है निरीक्षण और प्रकाश है ध्यान।‘’
जब भी तुम ध्यान करोगे तो प्रकाश को भीतर प्रवेश करता पाओगे, और जब भी तुम एकाग्र होकर देखोगें तो प्रवाह को निर्मित करोगे। प्रवाह को संभव बनाओगे। दोनों की ही जरूरत है।
‘’प्रकाश ध्यान है। ध्यान के बिना निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना प्रवाह।‘’
यही हुआ है। हठयोग के साथ यही दुर्घटना घटी है। वे निरीक्षण तो करते है, चित को एकाग्र तो करते है, लेकिन प्रकाश को भूल जाते है। अतिथि के विषय में वक बिलकुल भूल गए है। वे बस घर को तैयार किए चले जाते है; वे घर को तैयार करने में इतने उलझ गए है कि वे उस प्रयोजन को ही भूल गए है। जिसके लिए घर की तैयारी है। हठ योगी सतत अपने शरीर को तैयार करता है, शरीर को शुद्ध करता है, योगासन, प्राणायाम करता है। और आजीवन करता ही चला जाता है। वह भूल ही गया है कि यह सब वह कर किस लिए रहा है। और प्रकाश बाहर खड़ा है लेकिन हठ योगी उसे भीतर नहीं आने दे रहे है। क्योंकि प्रकाश तभी भीतर आ सकता है तब तुम पूर्णता: समर्पण की दशा में आ जाओ।
‘’ध्यान के बिना निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना प्रवाह।‘’
तथाकथित योगियों के साथ यही दुर्घटना घटी है। दूसरी दुर्घटना मनोविश्लेषकों और दार्शनिकों के साथ घटी है।
‘’निरीक्षण के बिना ध्यान का अर्थ है प्रवाह के बिना प्रकाश।‘’
वे प्रकाश पर विचार करते है, लेकिन उन्होंने प्रकाश की बाढ़ भीतर आ सके इसके लिए तैयारी नहीं की है; वे प्रकाश पर केवल विचार करते है। वे अतिथि के विषय में सोचते है, अतिथि के विषय में हजारों बातों की कल्पना करते है, लेकिन उनका घर तैयार नहीं है। दोनों की चूक रहे है।
‘’इसका ख्याल रखो।‘’
दोनों में से किसी भी भ्रांति में मत गिरो। यदि तुम सचेत रह सको तो यह अत्यंत सरल सी प्रक्रिया है और गहन रूप से रूपांतरणकारी है। जो व्यक्ति ठीक ढंग से समझ ले वह एक क्षण में ही एक भिन्न वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है।