योग शब्द की अर्थ

योग शब्द का अर्थ - पाणिनी ने योग शब्द की व्युत्पत्ति युजिर् योगे युज समाधो तथा 'युज् संयमने इन तीन धातुओ से मानी है । प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार 'योग' शब्द का अनेक अर्थो में प्रयोग किया गया है।, जैसे जोड़ना, मिलाना, मेल आदि। इसी आधार पर जीवात्मा और परमात्मा का मिलन योग कहलाता है। इसी संयोग की अवस्था को "समाधि की संज्ञा दी जाती है जो कि जीवात्मा और परमात्मा की समता होती है। महर्षि पतंजलि ने योग शब्द को समाधि के अर्थ में प्रयुक्त किया है। व्यास जी ने 'योगः समाधिः कहकर योग शब्द का अर्थ समाधि ही किया है। वाचस्पति का भी यही मत है। संस्कृत व्याकरण के आधार पर योग शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है।
1. युज्यते एतद् इति योगः -इस व्युत्पत्ति के अनुसार कर्मकारक में योग शब्द का अर्थ चित्त की वह अवस्था है जब चित्त की समस्त वृत्तियों में एकाग्रता आ जाती है। यहाँ पर 'योग शब्द का उद्देश्य के अर्थ में प्रयोग हुआ है।
2. "युज्यते अनेन अति योगः -इस व्युत्पत्ति के अनुसार करण कारक में योग शब्द का अर्थ वह साधन है, जिससे समस्त चित्तवृत्तियों में एकाग्रता लाई जाती है। यही योग' शब्द साधनार्थ प्रयुक्त हुआ है। इसी आधार पर योग के विभिन्न साधनो को जैसे हठ, मंत्र, भक्ति, ज्ञान, कर्म आदि को हठयोग, मंत्रयोग, भक्ति योग, ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि के नाम से पुकारा जाता है।
3 'युज्यतेऽस्मिन् इति योगः इस व्युत्पत्ति के अनुसार योग शब्द का अर्थ वह स्थान है जहाँ चित्त की वृत्तियाँ की एकाग्रता उत्पन्न की जाती है। अतः यहाँ पर अधिकरण कारक की प्रधानता है।
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